महर्षि पाणिनि और संस्कृत व्याकरण का पौराणिक विवेचन।
उज्जैन। चतुर्दश माहेश्वर सूत्र पाणिनीय व्याकरण के मूल आधार है। अतःयह कह सकते है कि दोनों एक दूसरे के पूरक है भगवान शिव के प्रसाद से आचार्य पाणिनि को ये सूत्र प्राप्त हुए थे ,इसी कारण इनको माहेश्वर सूत्र कहते है। उन्ही को अक्षरसमाम्नाय भी कहते है आम्नाय का तात्पर्य यहां संप्रदाय से है अर्थात व्याकरण संप्रदाय , हम जानते है यही सूत्र संस्कृत व्याकरण का मूल भी है ।
ये सूत्र भगवान शिव जी की डमरू से प्रस्फुटित हुए है ।वेद अपौरुषेय है अर्थात् ईश्वर की रचना है ।और उनके मर्म को जानने हेतु साधना और तप आवश्यक होता है । तब वह ज्ञान साधक के मन में प्रविष्ट होता है ।साधना और तपस्या का यह कार्य सरल नहीं होता । इसीलिए वेद परायणकर्ता अत्यंत संयमी विप्रजन ऋषिगण ,या साधु-महात्मा ही होते थे। वेदों के ज्ञान के सार को सरल रूप में आम लोगों के लिए उपलब्ध कराने के लिए एक माध्यम की आवश्यकता थी। महादेव के डमरू से प्रस्फुटित चार ध्वनि अक्षरों की साधना करके आचार्य पाणिनि ने सूत्रों की रचना की और व्याकरण शास्त्र के सम्प्रदाय को स्थापित किया । महादेव की कृपा से यह कैसे संभव हुआ इसकी कथा भविष्य पुराण में इस प्रकार है ।एक बार ऋषियों ने श्रीसूतजी से पूछा-हे भगवन! तीर्थों का दर्शन, दान, पूजा और व्रत-उपवास आदि में सबसे उत्तम धर्म साधन क्या है जिसका पालन करके मनुष्य इस भवसागर को सरलता से पार कर ले? तब श्रीसूतजी बोले– ऋषियों आपने उत्तम प्रश्न किया है इस संदर्भ में एक कथा सुनाता हूं । ध्यान से सुनो । साम ऋषि के सबसे बड़े पुत्र का नाम पाणिनि था । पाणिनि मन लगाकर विद्या अभ्यास करते थे । ज्ञान प्राप्ति के हर संभव प्रयास में लगे रहते थे। उनमें सबसे बड़ा ज्ञानी बनने की धुन सवार हो गई ,पर उस समय पृथ्वी अद्वितीय विद्वानों से भरी थी।ईश्वर की लीला देखिए, एक दिन अचानक पाणिनि को दैवयोग से यह आभास हुआ कि उनमें कुछ ऐसी शक्ति आ गई है कि वह कुछ असाधारण कर सकते है ।पाणिनि के पास ज्ञान साधारण ही था परंतु परमात्मा को जब कोई लीला करनी होती है तो वह कुछ न कुछ ऐसा कराते ही हैं जो अप्रत्याशित होता है ।भगवान भोलेनाथ की माया ऐसी हुई कि पाणिनि ने अपन वैदुष्य दिखाने के लिए सभी विद्वानों को शास्त्रार्थ की चुनौती दे दी। जिसे अभी ठीक से ज्ञान प्राप्त ही नही हुआ था उसने विद्वानों को शास्त्रार्थ की चुनौती दे दी।बात इतनी ही नही थी ।अज्ञानता में पाणिनि ने सबसे पहले चुनौती दी भी तो किसे ? आचार्य कणाद को आचार्य कणाद उस समय के श्रेष्ठ विद्वानों में अग्रगण्य थे ।उनके ज्ञान का सम्मान सभी करते थे. कणाद दिव्यदृष्टा थे। वह जानते थे कि पाणिनि विलक्षण प्रतिभा के धनी है किंतु उन्हें मिथ्या अभिमान हो गया है। कणाद ने पाणिनि के अहंकार को नष्ट करने का निश्चय किया ।
जब पाणिनि उनके पास शास्त्रार्थ के लिए आए, तो कणाद ने बड़े आदर से स्वागत किया.उन्होंने पाणिनि से कहा- कि पहले मेरे शिष्यों से ही शास्त्रार्थ कर लो, यदि तुम उन्हें पराजित कर सको तो फिर मैं तुमसे शास्त्रार्थ करने को सहर्ष तैयार हूं । पाणिनि का कणाद के शिष्यों के साथ शास्त्रार्थ आरंभ हुआ परंतु शीघ्र ही कणाद के शास्त्रज्ञ शिष्यों से वह पराजित हो गए ।उन्हें अपनी क्षमता का बोध हो चुका था ।वह लज्जित होकर उस क्षेत्र से निकले,लज्जावश वह अपने घर भी नहीं लौटे ,इसलिए तीर्थयात्रा के लिए चले गए ।सभी तीर्थों में स्नान तथा देवता-पितरों का तर्पण करने के उपरांत भी मन शांत न हुआ । पाणिनि को जीवन आशाहीन लग रहा था।इसी निराशा में उन्हें देवाधिदेव महादेव को प्रसन्नकर ज्ञान प्राप्त करने की सूझी ,तो केदारक्षेत्र में रहकर भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए तप करने लगे। पाणिनि का तप धीरे-धीरे कठोर होता जा रहा था। पहले तो वह पूरी तरह से वृक्ष के पत्तों के आहार पर निर्भर रहे सात दिनों बाद एकबार जल ग्रहण करते थे।
इसके बाद दसवें दिन केवल जल ग्रहण करने लगे बाद में उन्होंने जल भी त्याग दिया और दस दिनों तक केवल वायु के ही आहार पर निर्भर रहकर भगवान शिव का ध्यान करते रहे।इस प्रकार अठ्ठाइस दिन बीत गये । पाणिनि की कठोर तपस्या निरंतर चल रही थी ।पाणिनि की प्रतिज्ञा उनकी तपश्चर्या में दिख रही थी ।अंतत: शीघ्र प्रसन्न होने वाले औघड़दानी महादेव ने प्रकट होकर उनसे वर मांगने को कहा। तब पाणिनि भगवान् शिव की स्तुति इस प्रकार करने लगे –
नमो रुद्राय महते सर्वेशाय
हितैषिणे । नन्दीसंस्थाय देवाय विद्याभयकराय च पापान्तकाय
भर्गाय नमोऽनन्ताय वेधसे। नमो मायाहरेशाय नमस्ते लोकशंकर ( भ.पु.प्रतिसर्गपर्व २. ३१।७-८)
‘महान् रुद्रको नमस्कार है। सर्वेश्वर सर्वहितकारी भगवान् शिवको नमस्कार है। अभय एवं विद्या प्रदान करनेवाले नन्दी- वाहन प्रिय भगवान्को नमस्कार है। पापका विनाश करनेवाले तथा समस्त लोकोंके स्वामी एवं समस्त मायारूपी दुःखोंका हरण करनेवाले तेजःस्वरूप अनन्तमूर्ति भगवान् शंकरको नमस्कार है।” देवेश यदि आप प्रसन्न हैं तो मुझे मूल विद्या एवं परम शास्त्र ज्ञान प्रदान करनेकी कृपा करें।
सूत जी बोले– हे ऋषिगणों,तब महादेव ने प्रसन्न होकर अपनी डमरू से ध्वनि निकाली और उससे ‘अ इ उ ण’ जैसे मंगलकारी वर्ण और व्याकरण के सूत्र निकले, तब शिवजी बोले हे पाणिनि मैंने जो प्रदान किया उसे सर्वोत्तम तीर्थ समझना. आत्मज्ञान से बड़ा कोई तीर्थ नहीं बिना ज्ञान प्राप्त किए तीर्थ दर्शन का पूर्ण लाभ नहीं होता। यह महान-ज्ञानतीर्थ ब्रह्म के साक्षात्कार कराने तक में समर्थ है । सभी धर्म साधनों का एक साथ लाभ देने वाला है इस के बाद भगवान रूद्र अंतर्धान हो गए। शिवजी की डमरू से निकली हुई ध्वनि उन्हें स्मरण थी. पाणिनि उस ध्वनि का ध्यान करने लगे. उन ध्वनियों के ध्यान से उन्होंने व्याकरण शास्त्र की रचना की ।पाणिनि को भगवान शिव का आदेश था कि समस्त तीर्थों का लाभ ज्ञानतीर्थ से प्राप्त करना है। अतः उन्होंने एक स्थान पर आसन जमाया और डमरू की ध्वनियों के और रहस्य का अन्वेषण करने लगे।उनकी दृष्टि जितनी विस्तृत होती जाती उन्हें उतनी ही प्रेरणा मिलती गई। इस तरह पाणिनि ने सूत्रपाठ, धातुपाठ, गणपाठ और लिंगसूत्र-रूप व्याकरण शास्त्र का निर्माण कर दिया। पाणिनि की इस रचना से जब संसार परिचित हुआ तो वह जगत में पूजनीय हो गए ।और पाणिनि से आचार्य पाणिनि फिर महर्षि हो गए। इस तरह आचार्य पाणिनि ने परम निर्वाण प्राप्त किया और लोक को व्याकरण शास्त्र देकर उपकृत किया।कथा सुनाकर सूतजी बोले- ज्ञान एक सरोवर है. उस सरोवर का सत्य रूपी जल राग-द्वेष रूपी मल का नाश करने वाला है.तीर्थों के दर्शन, दान, पूजा और व्रतोपवास से भी उत्तम धर्म साधन है मानस तीर्थ का दर्शन करता अर्थात ज्ञान प्राप्त करना। उससे समस्त पुण्य लाभ प्राप्त हो जाते है । संपूर्ण विश्व को कंप्यूटर प्रोग्रामिंग प्रदान करने वाले महर्षि पाणिनि भारत में ही नही अपितु विश्व के अनेक देशों में पूजे जाते है ।अमेरिका ने उनके सम्मान में पाणिनि प्रोग्रामिंग लैंग्वेज बनाई है ।शब्द शास्त्र मर्मज्ञ भगवान पाणिनि को हमारा कोटिश: नमस्कार ।