रतलाम : सबके लिए कर्म करो, तो भी फल स्वयं को भोगना पडेगा : जितेश मुनिजी मसा
रतलाम । मनुष्य का भव आत्म कल्याण के लिए है। इसमें स्वयं के लिए जीना चाहिए। व्यक्ति जब स्वयं के लिए जीता है, तो पापकर्म करने की जरूरत नहीं पडती। इसलिए निर्णय करों कि शरीर के लिए जीना है अथवा आत्मा के लिए जीना है। आत्मा के लिए धर्म करोगे, तो फल के रूप में आत्म कल्याण ही होगा। यह बात उपाध्याय प्रवर श्री जितेश मुनिजी मसा ने कही। सिलावटों का वास स्थित नवकार भवन में परम पूज्य, प्रज्ञा निधि, युगपुरूष, आचार्य प्रवर 1008 श्री विजयराजजी मसा की निश्रा में चातुर्मासिक प्रवचन देते हुए उन्होंने उदाहरण देकर समझाया कि भूखे बच्चे को भूख लगने पर पेड दिखा, तो वह फल तोडकर खाने लगा, लेकिन तभी माली आया और उसे डांट कर पिटाई कर दी। इसमें जिसने देखा, उसने तोडा नहीं, जिसने तोडा नहीं उसने चखा नहीं और जिसने चखा, वह रोया नहीं की पहेली चरितार्थ हुई। अर्थात फल को आंखो ने देखा, लेकिन उसने तोडा नहीं, हाथों ने तोडा, लेकिन उसने चखा नहीं और जुबान ने चखा लेकिन वह रोयी नहीं। रोना आंखो को ही पडा, क्योंकि फल को उसने देखा था। संसार में ऐसे ही कर्मों का फल मिलता है।
उपाघ्यायश्री ने कहा कि परिवार है, पर प्यार नहीं और अपने है, लेकिन अपनापन नहीं की स्थिति कर्म सत्ता के कारण बनती है। पापकर्मों का उदय होता है, तो अपने भी पराए लगते है। व्यक्ति समझता है कि उसे अपने धोखा दे रहे है, लेकिन वास्तव में यह उसके कर्म का फल है।