हमारा हृदय ही वह तीर्थ है जिसमें राम बसे हुए हैं
रामायण कहती है कि देह रूपी अयोध्या नगरी में हमारा हृदय ही वह तीर्थ है जिसमें राम बसे हुए हैं। बस अपनी देह के दीपक की लौ को हृदय तक ऊंचा उठाकर अपने ही हृदय-सरोवर में प्रवाहित करना है। हम पर्यटक नहीं हैं, हमारी देह ही वह रामतीर्थ है जिसमें राम प्रतिष्ठित हैं। हमें कहीं जाना नहीं है, बस राम को पाने के लिए अपनी ओर लौटना है। जीवन जल हैं राम जिसमें सब अपने जीवन की नाव खेकर सबको पार उतारते हैं।
जब हृदय में जल सूखता है तब आंखों का पानी भी मरने लगता है। जिनकी आंखें गीली नहीं होती वे संसार के कुंडों, सरोवरों, नदियों और कुओं का जल भी नहीं बचा पाते। जल ही पालनहार है। उसी से तृप्ति, मुक्ति और संपत्ति प्राप्त होती है। रामचरित की गहराई में उतरे हुए श्रद्धावान जनों की आंखें सजल बनी रहती हैं। वे प्रेम और पुलक से भरे रहते हैं। उनकी स्मृतियों के आकाश में प्रेमघन छाये रहते हैं। रामचरित के रसिकों के मन की धरती पर उनकी यह द्रवित भक्ति ही मधुर, मनोहर और मंगलकारी जल की तरह बरसती रहती है। राम की भक्ति धरती पर संचित उस जीवन जल की तरह ही है जो प्रकृति का प्राण है और प्रकृति राम का आश्रय है। जब यह आश्रय वन में खो जाता है तो वे प्रकृति से ही उसका पता पूछते फिरते हैं। राम का वनगमन उनकी अनवरत प्रतीक्षा की कविता से भरा हुआ है। अहल्या धरती उनकी प्रतीक्षा कर रही है। वन में अकेली शवरी किसी चातकी की तरह टकटकी लगाये राम की राह देख रही है। केवट अपनी काठ की नौका में बिठाकर राम को गंगा पार उतारने के लिए आकुल है। निषादजन उनका कंद-मूलों से सत्कार करने के लिए उस पगडण्डी पर अपने सजल नयन बिछाये हुए हैं जहां पग धरते राम उनके वनमण्डल में आकर उन्हें तृप्त करेंगे। वनों को पार करते राम के सांवरे-सलोने रूप पर ग्राम वधूटियां सहज ही अपने हृदय को उन पर न्यौछावर करती हैं। रामायण में राम का रंग सांवले बादलों जैसा ही तो है। वे इसी तरह सबके जीवन पर छाकर अपने आगमन की सूचना देते-से लगते हैं। राम की प्रतीक्षा सबकी सुमति की भूमि पर मंगलमय वर्षा ऋतु के आगमन जैसी है। प्रकृति ही राम की पुरातन प्रेमिका है। जब वह वन में हर ली जाती है तो आकाश में छाये बादलों को देखकर अकेले पड़ गये राम का प्रियाहीन मन भी पीड़ा से भर उठता है। वे उसके करीब जाकर उसे पाना चाहते हैं । इसी तरह राम से दूर अकेली सीता की आंखें उनकी स्मृतियों से भरकर सजल बनी रहती हैं। रामायण में सबकी प्रकृति राम की प्रतीक्षा करती हुई प्रतीति में आती है।