कहीं डिजिटल पेपर पर तो कहीं आज भी गाय के गोबर से बनती है संजा
कानड़। हिन्दू सनातन धर्म में हर त्योहार पर मेहंदी, महावर और मांडने मांडे जाते हैं तो वहीं दीपोत्सव और शुभ कार्य की शुरूआत रंगोली से होती है। इसी तरह श्राद्ध पक्ष में पूर्णिमा से पितृमोक्ष अमावस्या तक श्राद्घ पक्ष में कुंआरी कन्याओं द्वारा मनाया जाने वाला संजा पर्व आज भी गांवों में बड़े उत्साह के साथ मनाया जाता है।भारतीय संस्कृति के अनुरूप मनाए जाने वाला लौकिक पर्व संजा पूणीर्मा से प्रारंभ होकर अमावस्या तक 16 दिन श्राद्ध पक्ष में घर घर मनाए जाने वाला पर्व आज डीजिटल इंडिया की तरह प्रिंटेड हो गया लेकिन ग्रामीण इलाकों में अलौकिक पर्व संजा आज भी अपनी भारतीय संस्कृति को जीवित रखते हुए गोबर से नन्हें नन्हें कोमल हाथों से बालिकाओं द्वारा संजा बनाकर नित्य पुजने का क्रम जारी है। एवं नित्य रात्रि को नई नई आकृति में विलुप्त हहोती कलाओं परंपरा को जीवित रख संजा बना कर गीत संजा तू थारे घर जा थो थारी बाई मारेगा कुटेगा डेरी में ड़चौकेगा ऐसी मालवी भाषाओं में गायी जाती है व बच्चों द्वारा नन्हे नन्हे हाथों से गोबर से श्राद्ध पक्ष के प्रथम दिन से दीवारों पर लीपापोती कर नाना प्रकार की कलाकृतियां बनाकर झुंड के झुंड में संजा माता का पूजन कर प्रसाद वितरण करने का पर्व 10 सितंबर शनिवार से प्रारंभ हो गया यह कम क्रम 16 श्राद्ध के दिनों तक चलता है।संजा पर्व के दिन पूनम का पाटला बनता है तो दूज का बिजौरा बनता है। तीसरे दिन घेवर, चौथे दिन चौपड़, पांचवें दिन पांचे या पांच कुंवारे बनाए जाते हैं। छठे दिन छबड़ी, सातवें दिन सातिया-स्वस्तिक, आठवें दिन आठ पंखूड़ी का फूल, नौवें दिन डोकरा-डोकरी उसके बाद वंदनवार, केल, जलेबी की जोड़ आदि बनने के बाद तेरहवें दिन शुरू होता है किलाकोट बनना, जिसमें 12 दिन बनाई गई आकृतियां भी होती हैं।श्राद्घ पक्ष की समाप्ति पर सारे समेटकर नई नवेली बन्नी की तरह बिदा होती है संजा।