श्री श्रावण पूर्णिमा पर्व पर श्रावणी उपकर्म के आयोजन में वेद पाठियों ने सहभागिता की
उज्जैन । श्रावणी उपाकर्म उपाकर्म द्विजों के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण धर्मशास्त्रीय कृत्य है। इसे प्रतिवर्ष करना आवश्यक है। उपाकर्म न करने से दोष लगता है जिसके प्रायश्चित के लिए प्राजापत्यव्रत और उपवास आदि का विधान है।
श्रावणी उपाकर्म के तीन पक्ष है- प्रायश्चित संकल्प, संस्कार और स्वाध्याय। सर्वप्रथम होता है- प्रायश्चित रूप में हेमाद्रि स्नान संकल्प। गुरु के सान्निध्य में ब्रह्माचारी गाय के दूध, दही, घी, गोबर, गौमूत्र तथा पवित्र कुशा से दसविधि स्नानकर वर्षभर में जाने-अनजाने में हुए पापकर्मों का प्रायश्चित कर जीवन को सकारात्मकता से भरते हैं। स्नान के बाद ऋषिपूजन, सूर्योपस्थान एवं यज्ञोपवीत पूजन तथा नूतन यज्ञोपवीत धारण करते हैं। यज्ञोपवीत या जनेऊ आत्म संयम का संस्कार है। आज के दिन जिनका यज्ञोपवित संस्कार हो चुका होता है, वह पुराना यज्ञोपवित उतारकर नया धारण करते हैं और पुराने यज्ञोपवित का पूजन भी करते हैं। इस संस्कार से व्यक्ति का दूसरा जन्म हुआ माना जाता है। इसका अर्थ यह है कि जो व्यक्ति आत्म संयमी है , वही संस्कार से दूसरा जन्म पाता है और द्विज कहलाता है।