रतलाम : प्रवचन में सीख, राखी बांधना और रूपए दे देना पर्व नही- संस्कृति की सुरक्षा का संकल्प लेकर मनाए रक्षा बंधन का पर्व -आचार्य श्री विजयराजजी म.सा.

रतलाम ।  जैन संस्कृति में जैसे संवत्सरी का पर्व प्राणी मात्र की सुरक्षा का पर्व है, वैसे ही रक्षाबंधन रक्षा के लिए वचनबद्ध होने का पर्व है। रक्षाबंधन का पर्व बहुत बडा पर्व है। इस पर राखी बंधवाना और 500-700 रूपए दे देना पर्व नही है। इस पर्व पर सबकों संस्कृति की रक्षा के लिए संकल्पित होना चाहिए। क्योंकि वर्तमान दौर में बहुत सांस्कृतिक पतन हो रहा है।
यह सीख परम पूज्य, प्रज्ञा निधि, युगपुरूष, आचार्य प्रवर 1008 श्री विजयराजजी मसा ने दी। छोटू भाई की बगीची में रक्षाबंधन के विशेष प्रवचन देते हुए उन्होंने कहा कि हमारा देश पर्व प्रधान देश है। भारत में जितने पर्व और त्यौहार मनाए जाते है, उतने कहीं नहीं मनाए जाते, इसलिए इसे पर्वों का देश कहा जाता है। रक्षाबंधन का पर्व कर्तव्य और दायित्व का बोध कराने वाला हैं। केवल शरीर की रक्षा करना ही रक्षा नहीं होती, अपितु आत्मा के गुणों की रक्षा भी करना हम सबका दायित्व हैं।
आचार्यश्री ने कहा कि शील और सदाचार आत्मा के प्रमुख गुण है। इनकी रक्षा करना ही सच्चे अर्थो में रक्षा का पर्व मनाना है। इतिहास में बहन द्वारा भाई की कलाई पर रक्षासूत्र बांधकर रक्षा का वचन लेने और भाई द्वारा बहन पर सर्वस्व निछावर करने के कई प्रसंग है। भाई पर संकट आने की दशा में बहन ने भी रक्षासूत्र भेजकर कई बार अपना कर्तव्य निभाया है। जैन शास़्त्रों मे ंजीव मात्र की रक्षा का संदेश है, इसलिए बहन की रक्षा का दायित्व भी उसमें समाहित है।
आचार्यश्री ने प्राणी मात्र के साथ संस्कृति की रक्षा का संकल्प व्यक्त करते हुए श्रावक-श्राविकाओं से ज्ञान, दर्शन, चारित्र की रक्षा का आव्हान किया। आरंभ में उपाध्याय प्रवर श्री जितेश मुनिजी मसा ने रक्षाबंधन के महत्व पर विस्तार से प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि यह पर्व एक दिन तक सीमित रहने वाला नहीं है। इसके वचनों का पालन वर्ष भर करना चाहिए। इस मौके पर आचार्यश्री से महासती मोहकप्रभाजी मसा ने 27 एवं महासती चिंतनप्रज्ञाजी मसा ने 10 उपवास की तपस्या के प्रत्याख्यान ग्रहण किए। इस दौरान सैकडों श्रावक-श्राविकाएं उपस्थित रहे।

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