रतलाम : तृप्ति के लिए इच्छा जरूरी नहीं, संतोष आवश्यक है : विजयराजजी
रतलाम । संसार में तृप्ति के लिए प्राप्ति, प्राप्ति के लिए प्रवृत्ति और प्रवृत्ति के लिए इच्छा का भाव होना जरूरी है। बिना इच्छा के प्रवृत्ति नहीं होती, बिना प्रवृत्ति के प्राप्ति नहीं होती और बिना प्राप्ति के तृप्ति नहीं हो सकती। इच्छा जितनी बढेगी, उतनी ही प्रवृत्ति, प्राप्ति और तृप्ति बढेगी। इसलिए सांसारी का मन इसमें ही लगा रहता है। साधकों के लिए इच्छा, प्रवत्ति, प्राप्ति कोई मायने नहीं रखते। उन्हें तो संतोष से ही तृप्ति मिल जाती है। यह बात परम पूज्य, प्रज्ञा निधि, युगपुरूष, आचार्य प्रवर 1008 श्री विजयराजजी मसा ने कही। छोटू भाई की बगीची में चातुर्मासिक प्रवचन के दौरान उन्होंने कहा कि मन जब प्रबुद्ध हो जाता है, तो बिना इच्छा के तृप्त हो जाता है। मन चार प्रकार का सुशुप्त मन, लुग्ध मन, मुग्ध मन और प्रबुद्ध मन होता है। सुशुप्त मन माने सोया हुआ,जो कुछ कर नहीं सकता। लुग्ध मन याने जिसकी चाह अधिक होती है और मुग्ध मन जो प्राप्ति में ही रमने वाला होता है। प्रबुद्ध मन को सही-गलत और सत्य-असत्य का ज्ञान होता है। मन जब प्रबुद्ध बनता है, वहीं शुद्ध और सिद्ध बनता है। आचार्यश्री ने कहा कि सत्संग मन को प्रबुद्ध बनाने का प्रकल्प है। लेकिन संसारी व्यक्ति लुग्ध मन और मुग्ध मन में ही रमता रहता है। साधकों का मन प्रबुद्ध होता है। इसलिए वे तृप्ति के लिए प्राप्ति, प्राप्ति के लिए प्रवृत्ति और प्रवृत्ति के लिए इच्छा का भाव नहीं रखते। मन को बिना इच्छा के भी संतोष रखकर तृप्त रखा जा सकता है। उन्होंने कहा कि संसार के सारे पाप असंतोष से पैदा होते है। असंतोषी इच्छा का जीवन जीता है और अंतिम समय में पछताता है। संसार में सुख है, ये दृष्टिकोण बदलना पडेगा। दृष्टिकोण बदलने से ही सुख मिलेगा। साधना में सुख का भाव सदैव कल्याणकारी है। आरंभ में तरूण तपस्वी श्री युगप्रभजी मसा ने संबोधित किया। उन्होंने कहा कि पैर की चोट और दिमाग की खोट किसी को सही दिशा में चलने नहीं देती।