कोटा कोचिंग में नाबालिग आत्महत्याएं

डॉ. विशेष गुप्ता
राजस्थान के कोटा कोचिंग संस्थानों में नवागत छात्र – छात्राओं के बीच आत्महत्याओं का सिलसिला रुकने का नाम नहीं ले रहा है। बीते रविवार को मात्र चार घंटे में फिर से दो छात्रों ने आत्महत्या कर ली है। एक छात्र ने मॉक टेस्ट में कम अंक आने पर रविवार दोपहर में कोचिंग संस्थान की छठी मंजिल से कूदकर आत्महत्या कर ली,वहीं दूसरे छात्र ने अपनी प्रतियोगी परीक्षा के टेस्ट में कम अंक आने पर अपने हॉस्टल के कमरे में फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली। आंकड़े गवाह हैं, कोटा में इस साल के पिछले 7-8 महीनों में 23 छात्रों,जबकि इसी अगस्त माह में ही सात छात्रों ने आत्महत्या कर ली। कोटा में नाबालिग छात्रों के बीच आत्महत्याओं का इस साल का यह आंकड़ा पिछले एक दशक में सबसे अधिक रहा है। अब तो ऐसा लगने लगा है कि जैसे कोटा कोचिंग हब के साथ-साथ आत्महत्याओं का हब भी बन रहा है । कोटा में आज जिस प्रकार से इन बच्चों में आत्महत्या करने की प्रवृत्ति बढ़ रही है, उससे अब कोटा की कोचिंग व्यवस्था पर अनेक सवाल उठने शुरू हो गए हैं। पहले जरा आंकड़ों पर गौर करें,तो पता लगता है कि पिछले दस-ग्यारह सालों में कोटा में 175 से भी अधिक बच्चे आत्महत्या के शिकार हो चुके हैं । कोटा कोचिंग से जुड़े पिछले ग्यारह सालों के आंकड़े भी बताते हैं कि 2011 में छह स्टुडेंट्स ने, 2012 में 11, 2013 में 26 , 2014 में 14, 2015 में 18, 2016 में 17 छात्रों,जबकि 2017 में 7 ,2018 में 20 विद्यार्थियों ,2019 में 18, 2022 में 15 छात्रों ने खुदकुशी की। कोटा की कोचिंग व्यवस्था में जिस प्रकार इन नाबालिग बच्चों के जीवन में करियर को लेकर एक भावना पनप रही है, उससे भविष्य में इन घटनाओं के और अधिक बढ़ने से इंकार नहीं किया जा सकता।

कोटा की कोचिंग से जुड़े आंकड़े साफ करते हैं, वहां हर साल दो लाख से भी अधिक टीनेजर्स छात्र कोचिंग के लिए कोटा आते हैं । इन सभी का स्वप्न उच्च प्रतियोगी परीक्षाओं में बैठने और उसको उत्तीर्ण करने के बड़े स्वप्नों से जुड़ा हुआ होता है । इस कोचिंग पर अभिभावक हर वर्ष तीन से चार लाख रूपए खर्च करते हैं । कभी-कभी इन छात्रों के अभिभावक कोचिंग की यह फीस बैंक या अन्य संस्थाओं से ऋण लेकर भी चुकाते हैं । इसलिए कई बार कोचिंग से जुड़े ये छात्र अपने परिवार की कमजोर आर्थिक स्थिति को लेकर भी काफी दवाब में रहते हैं । पिछल दिनों कोटा में कोचिंग कर रहे दर्जन भर छात्रों से संवाद करने पर पाया कि वहां के अध्यापक कोचिंग में अच्छा प्रदर्शन करने वाले प्रतियोगी छात्रों को आगे की पंक्ति में बैठाकर उन पर अधिक ध्यान देते हैं । दूसरी ओर जो प्रतियोगी छात्र कोचिंग में अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पा रहे हैं, कई बार फैकल्टी उन्हें डांट-डपट करती है। साथ ही कड़ी प्रतिस्पर्धा में रहने के लिए दूसरों के मुकाबले उनसे बहुत अधिक परिश्रम करने का दबाव भी बनाती हैं । देखने में आया है कि कभी-कभी फैकल्टी ऐसे कमजोर बच्चों का बैच ही अलग कर देती हैं। कई बार कोचिंग संचालक एवं फैकल्टी ऐसे कमजोर बच्चों के अभिभावकों को केन्द्र पर बुलाकर उनके पाल्यों की कमियों को सबके सामने उजागर तो करते ही हैं, साथ में उन्हें वापस ले जाने की धमकी भी देते हैं । कहने की जरुरत नहीं कि भय का यह मनोविज्ञान इन बच्चों को निराशा से भर देता है । अब वहां खास बात यह है कि अधिकांश अभिभावकों ने आई.आई.टी./जे.ई.ई. और मेडिकल की पूर्व परीक्षाओं की तैयारियां के लिए अपने बच्चों को हाईस्कूल के बाद से ही कोटा के कॉलेजों में दाखिला दिला दिया है। आज इण्टर और कोचिंग की पढ़ाई दोनों साथ-साथ अध्ययन करने के लक्ष्य उनके सामने हैं। ऐसा कहा जाता है कि पढ़ाई और कोचिंग साथ-साथ करने से एक बरस का समय बच जाता है और इन बच्चों की प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए तैयारी भी अच्छी हो जाती है। इसी दोहरे दबाव के कारण प्रतियोगी छात्र जबर्दस्त द्वंद में फंसे रहते हैं। असल बात यह है कि इन प्रतियोगी परीक्षाओं में कोचिंग के बावजूद सफलता का प्रतिशत लगभग 25-30 फीसदी के आस पास ही रहता है । इन प्रतियोगी छात्रों की असफलता उन्हें तीव्र अवसाद की ओर ले जाती है । देखने में आ रहा है कि अपने परिवारों से दूर होस्टल के कमरों में बंद रहकर 20-20 घंटे कोचिंग करने वाले ये छात्र एक अनजान और बिल्कुल नए माहौल को आत्मसात करने में भी कठिनाई महसूस करते हैं । साथ ही प्रतियोगिता की तीव्र होड़ से उपजने वाली निराशा को कम करने और ढांढस बांधने में अपनों से संवाद का अभाव उन्हें अपने जीवन से हारने को मजबूर करता है । प्रतियोगी परीक्षा की जद्दोजहद और उसमें विफल रहने पर हौसले और सांत्वना देने वालों की कमी नाबालिगों को धीरे-धीरे अवसाद की ओर ले जा रही है । इन कोचिंग संस्थानों की स्थिति यह है कि वहां इन बच्चों के मनोविज्ञान को समझने वाला कोई नहीं है। अबोध मन की इस विपरीत स्थिति के समय उन्हें जिस पारिवारिक और भावनात्मक माहौल की जरूरत होती है, वे सब उसके जीवन से नदारद रहते हैं । इन छात्रों के अभिभावकों की स्थिति यह है कि वे अपने बच्चों के रहने-खाने और उनके मासिक खर्च की व्यवस्था करके बाकी अपनी इतिश्री समझ लेते हैं । नए वातावरण में समायोजन का न होना और कमोवेश उनका परिवार से दूरी होने के कारण भी इन बच्चों के जल्दी अवसाद में जाने का मुख्य कारण है । उनमें अवसाद से पनपने वाली भावना की यही स्थिति सही मायनों में उन्हें आत्मघात की ओर ले जा रही है।

खास बात यह है, 1980 के बाद से विगत चार दशकों में कोटा में तकरीबन 200 से भी अधिक कोचिंग संस्थान और 2500 से भी अधिक पंजीकृत होस्टल अस्तित्व में आ चुके हैं । आज कोटा में इन कोचिंग संस्थानों का टेस्ट-प्रीप्रेन का कुल सालाना बजट सात हजार करोड़ को पार कर रहा है । ये संस्थान 700 करोड़ से अधिक का रवेन्यू भी सरकार को चुकाते हैं। वर्तमान में प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने को लेकर देश से लाखों छात्र कोटा पहुंच रहे हैं । कोटा के ये कोचिंग संस्थान आज लाखों की रोजी-रोटी का साधन भी बने हैं । एक और खास बात यह है कि आज देश के तमाम तकनीकी विशेषज्ञ नामी- गिरामी तकनीकी संस्थानों को छोड़कर कोटा के इन संस्थानों में ज्वाइन कर रहे हैं । कोटा में ऐसी फैकल्टी का वेतन 25 से 30 लाख रूपये सालाना है। स्थिति यह है कि इन कोचिंग संस्थानों में जो फैकल्टी अपना और अपने विषय में पेशावरी पैदा कर लेती हैं, उनकी सालाना पगार तकरीबन दो -ढाई करोड़ रूपये तक चली जाती है जो किसी भी मल्टीनेशनल कंपनी की सालाना पगार से कहीं बहुत अधिक है। इसलिए भी कोटा की हसरत लगातार बढ़ रही है और पूरे देश से पेशेवर फैकल्टी और बच्चे कोचिंग के लिए कोटा की ओर भाग रहे हैं।

सरकार की गाइड़लाइन के अनुसार कोटा के इन कोचिंग संस्थानों ने फिलहाल दो महीने तक किसी भी तरह के टेस्ट पर रोक लगा दी है। साथ ही रविवार को पूरे दिन तथा बुधवार को आधे दिन के अवकाश की व्यवस्था भी कर दी है, लेकिन यह एक अस्थायी व्यवस्था है। इन बच्चों को इस दबाव और तनाव से मुक्त करने के लिए यह जरुरी है कि ये कोचिंग संस्थान अपने यहां एक मनोचिकित्सक के साथ-साथ एक काउंसलर फिजियोलॉजिस्ट की भर्ती करें । साथ ही इन प्रतियोगी बच्चों के अभिभावकों की भी काउंसिलिंग करें , जिससे वे अपने बच्चों की समय-समय पर कोचिंग प्रगति को जान सकें । इसके साथ-साथ इन बच्चों को लगातार कोचिंग के बीच में कुछ समय उनको कोचिंग के दबाव से मुक्त करते हुए योगाभ्यास इत्यादि से जोड़ना भी बहुत जरुरी है । छात्रों की लगातार चिकित्सा जांच के साथ में उनके मनोरंजन की व्यवस्था और उनके कोचिंग शुल्क में भी किस्तों की व्यवस्था करने से बच्चों के मानसिक दबाव में कमी आने की संभावनाएं हैं ।

मौजूदा इस गलाकाट प्रतिस्पर्धा के इस दौर में व्यक्तिगत लक्ष्य प्राप्ति की होड़ सामुदायिक संवेदनाओं को निगल रही है । देश की तकनीकी, प्रबंधकीय और चिकित्सीय सेवाओं से जुड़े इन क्षेत्रों में रातों-रात लक्ष्य प्राप्ति की होड़ ने तो शैक्षिक मूल्यों को ही ध्वस्त कर दिया है। साथ में करो या मरो के दर्शन ने भी इन बच्चों को मानसिक दबाव की सुलगती भट्टी में झोक दिया है। ऐसे में माँ-बाप की जिम्मेदारी बनती है, वे अपने बच्चों की शैक्षिक क्षमता का समय रहते आकलन करें । यह इन कोचिंग संस्थानों की भी जिम्मेदारी है, वे कोचिंग की इस बाजारी संस्कृति से बाहर आकर इन प्रतियोगी नाबालिग छात्रों को उपभोक्ता बाजार के चुगंल से बाहर निकालें और एक अभिभावक की भूमिका अदा करें । तभी शायद इस नए दौर की नाबालिग और व्यवसायी कोचिंग व्यवस्था की कोख से उभर रही आत्महत्या सरीखी ज्वलंत समस्या के समाधान के स्थायी रास्ते तला जा सकेंगे।

(लेखक समाजशास्त्र के प्रोफेसर एवम् उ.प्र. राज्य बाल अधिकार संरक्षण आयोग के अध्यक्ष रह चुके हैं ।)