उज्जैन में तब तक पीट गए 260 सरकारी कर्मचारी
सागर के बाद उज्जैन में ही सबसे ज्यादा मामले पंजीबद्ध हुए
उज्जैन। सरकारी कर्मचारियों के साथ मारपीट करने के मामले में उज्जैन का नाम भी पीछे नहीं है। बताया गया है कि सागर के बाद उज्जैन ही ऐसा शहर है जहां सरकारी कर्मचारियों के साथ मारपीट के सबसे ज्यादा मामले हुए है। जानकारी के अनुसार बीते दिनों से लेकर अभी
तक कुल 260 मामले पंजीबद्ध किए गए है। जबकि सागर में यह आंकड़ा 248 बताया गया है।
तक कुल 260 मामले पंजीबद्ध किए गए है। जबकि सागर में यह आंकड़ा 248 बताया गया है।
मप्र को भले ही शांति का टापू के रूप में पेश किया जाता है, लेकिन सरकारी अमले के मामले में वास्तविकता इससे अलग नजर आती है। इसकी वजह है, सरकारी अमले के साथ होने वाली मारपीट की घटनाएं। हद तो यह है कि प्रदेश में पुलिसकर्मी तक मारपीट का शिकार हो जाते हैंं। सरकारी आंकड़ें इसकी गवाही भी दे रहे हैं। इस मामले में खासतौर पर उज्जैन में तो दयनीय स्थिति है। विधानसभा में दी गई जानकारी के मुताबिक बीते 555 दिनों यानी की करीब पौने दो साल में 2011 शासकीय कर्मचारियों के साथ मारपीट के मामले दर्ज हुए हैं।इसमें उज्जैन भी शामिल है। शासकीय कर्मचारियों की पिटाई के मामले में प्रदेश के बड़े शहरों के हालात भी खराब है। सागर सिरमौर बनकर उभरा है। जहां सबसे अधिक 248 प्रकरण दर्ज किये गये हैं। इसके बाद मालवा के उज्जैन में 260 मामले पंजीबद्ध किये गये हैं। जिसमें इंदौर भी अछूता नहीं है। यहां 203 शिकायतें पुलिस को मिली है। जबलपुर में यह संख्या 172 है। जबकि राजधानी होने के बाद भी भोपाल में 196 वारदात सामने आई है।
निशाने पर इन विभागों के कर्मचारी
मारपीट की घटनाओं में सबसे ज्यादा शिकार सरकार का मैदानी अमला है। इसमें वन और पुलिस के अलावा ऊर्जा विकास, ग्रामीण विकास और नगरीय निकायों के कर्मचारी मुख्य रूप से शामिल हैं। यह वो अमला है , जिसे शासकीय दायित्व निर्वहन में अकारण हिंसा का सामना करना पड़ता है। कर्मचारी संगठनों का मानना है कि इस तरह के मामले में सरकार को न केवल गंभीर होने की जरूरत है, बल्कि ठोक कार्रवाई की भी आवश्यकता है।
मारपीट की घटनाओं में सबसे ज्यादा शिकार सरकार का मैदानी अमला है। इसमें वन और पुलिस के अलावा ऊर्जा विकास, ग्रामीण विकास और नगरीय निकायों के कर्मचारी मुख्य रूप से शामिल हैं। यह वो अमला है , जिसे शासकीय दायित्व निर्वहन में अकारण हिंसा का सामना करना पड़ता है। कर्मचारी संगठनों का मानना है कि इस तरह के मामले में सरकार को न केवल गंभीर होने की जरूरत है, बल्कि ठोक कार्रवाई की भी आवश्यकता है।