खुसूर-फुसूर या तो मासिक बंदी लो या फिर कडाई से नियम पालो
दैनिक अवंतिका
खुसूर-फुसूर
या तो मासिक बंदी लो या फिर कडाई से नियम पालो
अगर मासिक बंदी किसी माध्यम से निगेहबां के पास जा रही है तो नियमों के पालन में शिथिलता आना तय है। अगर कडाई से नियमों का पालन हो रहा है तो मासिक बंदी योजना का वहां कोई स्थान नहीं है,लेकिन मासिक बंदी भी ली जाए और नियमों की जूं पर नजर रहे तो विवाद पैदा होना लाजमी है। वर्तमान में एलौपैथ में ऐसा ही मामला चर्चाओं में बना हुआ है। जिले में करीब 700 संचालकों पर इसके एक निगेहबां ने यही स्थिति बना दी है। पिछले दिनों कुछ संचालकों को छोटी मोटी कमियों पर हडकाया । मुद्दा कुछ और था मुद्दे को कुछ और बनाया गया। संचालक ने दडबे में मियाद समाप्ति की सामग्री को एक और वापसी के लिए रखा था और इन्होंने पहुंचकर उसे ही मुद्दा बना दिया। इनके साथ इनके अधिनस्थ भी थे । दोनों ने जमकर दबाव बनाया और अपने आप को दुध का धूला साबित करते हुए जमकर दडबे वाले को चमकाया। अपने अन्य मुद्दे के लिए नोटिस भी थमाया और दडबे वाले को धमकाया भी। सामने आ रहा है कि जिले के सभी दडबा संचालक एक माध्यम से बंदी का पालन करते हैं । लाखों रूपए इसके तहत एक माध्यम से एकत्रित होते हैं और इसके बाद निगेहबां को प्रसादी भोग लगाया जाता है। ऐसे में दडबा संचालक ने सवाल उठाया और कहा कि छोटी मोटी कमी को या तो सुधार की स्थिति में रखा जाए या फिर बंदी लेना बंद कर नियमों का दृढता से पालन शुरू हो जाए। मामला दडबा संचालकों के एसोसिएशन तक पहुंचा है और उन्हीं में कलेक्शन कर्ता भी शामिल है। मुद्दे पर संगठन में आधे इधर आओं आधे इधर जाओं बाकी सब मेरे पीछे आओ की स्थिति निर्मित हो रही है। खुसूर-फुसूर है कि दडबा संचालक कह तो सही रहा है कि बंदी ले लो या नियमों का दृढता से पालन कर लो। वैसे निगेहबांओं का चलन रहा है कि सुधार के लिए जो तैयार हो उसे सुधरने का मौका देना चाहिए जिससे दोनों व्यवस्थाएं चलती हैं बंदी भी और नियम भी। अगर दृढता पर आए तो दाढ सूख जाने की स्थिति बनते देर नहीं लगती।