भारतीय दर्शन और योग में चक्र प्राण या आत्मिक ऊर्जा के केन्द्र

 

भारतीय दर्शन और योग में चक्र प्राण या आत्मिक ऊर्जा के केन्द्र होते हैं। ब्रह्मांड से अधिक मजबूती के साथ ऊर्जा खींचकर इन बिंदुओं में डालता है, इस मायने में यह ऊर्जा केंद्र है कि यह ऊर्जा उत्पन्न और उसका भंडारण करता है। मुख्य नाडि़यां इड़ा, पिंगला और सुषुन्ना (संवेदी, सहसंवेदी और केंद्रीय तंत्रिका तंथ) एक वक्र पथ से मेरूदंड से होकर जाती है और कई बार एक-दूसरे को पार करती हैं।
प्रतिच्छेदन के बिंदु पर ये बहुत ही शक्तिशाली ऊर्जा केंद्र बनाती है जो चक्र कहलाता है। मानव देह में तीन प्रकार के ऊर्जा केंद्र हैं। अवर अथवा पशु चक्र की अवस्थिति खुर और श्रोणि के बीच के क्षेत्र में होती है जो प्राणी जगत में हमारे विकासवादी मूल की ओर इशारा करता है। मानव चक्र मेरूदंड में होते हैं। अंत में, श्रेष्ठ या दिव्य चक्र मेरूदंड के शिखर और मस्तिष्क के शीर्ष पर होता है।

ब्रह्मज्ञान क्या है
ब्रह्मविद्या’ या ‘ब्रह्मज्ञान’- अंतर्जगत का शिरोमणि विज्ञान है। आर्ष-ग्रंथों में इसे ही ‘परा विद्या’ कहकर संबोधित किया गया। गीता इसे ‘राजयोग’ कहती है। इसकी स्तुति में स्वयं योगीराज श्री कृष्ण का कथन है- ‘यह राजविद्या है’ अर्थात् सभी विद्याओं की राजेश्वरी या साम्राज्ञी है। पातंजल दर्शन ने इसे सर्वविषयक, सर्वथाविषयक, तारक ज्ञान का नाम दिया। वेदों का भी यही कहना है- ब्रह्मविद्याम् सर्वविद्याप्रतिष्ठाम्’ अर्थात् ब्रह्मविद्या सभी विद्याओं की आधारशिला है। सभी ज्ञान-सरिताओं की स्त्रोत और पोषण करने वाली है। सभी विद्याएँ इसी में प्रतिष्ठित हैं। ईश्वर को दिव्य दृष्टि द्वारा अपने भीतर ही देख लेना ब्रह्मज्ञान है। यह ज्ञान सदा से एक असाधारण विषय माना जाता रहा है। निःसंदेह, ब्रह्मज्ञान अथवा ईश्वर-दर्शन असाधारण ही है। परमात्मा को देखना कठिन नहीं है  कठिन है तो ऐसे सच्चे ब्रह्मनिष्ठ सद्गुरु का मिलना, जिसने स्वयं परमात्मा को प्राप्त किया ही हो और जिज्ञासुओं को भी तत्क्षण परमात्मा के दर्शन कराने की सामर्थ्य रखता हो।