मन की गति को कैसे नियंत्रित किया जाए
मन की शक्ति से ही मनुष्य जीतता है और मन की दुर्बलता से ही हार जाता है। मन चेतन और अचेतन दोनों ही स्तरों पर व्यक्ति के संपूर्ण व्यवहार और व्यक्तित्व को प्रभावित करता है। मन को महान चित्रकार, जादूगर और ब्रह्म सृष्टि का तत्व भी कह सकते हैं, क्योंकि संकल्प के बिना सृष्टि नहीं हो सकती और मन के बिना संकल्प नहीं हो सकता। मन की स्थिरता और शुद्धता से संकल्प को दृढ़ता प्राप्त होती है। इसके विपरीत मन की चंचलता विनाश को आमंत्रण देती है। जब तक मन को जीता नहीं जाता, तब तक राग और द्वेष शांत नहीं होते।
गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने मन को बड़ा चंचल बताते हुए मथ डालने वाला बताया है। उनके अनुसार मन बहुत बलवान है। जैसे वायु को दबाना कठिन है, वैसे ही मन को वश में करना भी कठिन है। गीता के छठे अध्याय में वह कहते हैं कि, ‘नि:संदेह मन बहुत चंचल है, परंतु अभ्यास और वैराग्य द्वारा इसे नियंत्रित किया जा सकता है। वस्तुत: राग मन को बंधन में डालता है, जबकि वैराग्य इसे बंधन मुक्त करता है। किसी वस्तु या व्यक्ति से अतिशय लगाव या राग उसकी कमियों को भी हमारे लिए प्रिय बना देते हैं। यही बंधन है जो हमें वास्तविकता और सत्य का आभास नहीं होने देता। इस माया संग लगा मन हमें चंचल बनाता है। मन की यह चंचल गति हमें मथती रहती है। मन को भी स्थिर करने के लिए निश्छलता और सहजता का आधार तैयार करना पड़ता है। तभी वह शांत और स्थिर हो पाता है। जैसे तालाब की गंदगी और चंचलता समाप्त होने पर ही हम उसकी तलहटी में पड़ी वस्तुओं को ठीक से देख सकते हैं। वैसे ही चंचल और मलिन मन से हम आत्मदर्शन नहीं कर सकते। इसके लिए मन को शांत और निर्मल होना आवश्यक है। यही शांत और निर्मल मन ही आत्मिक शक्ति का आधार बनकर हमारे व्यक्तित्व को सही आकार प्रदान करता है।