चेतना वह अनुभूति है जो अभिगामी आवेगों से उत्पन्न होती है

कुछ लोगों का मानना है कि चेतना एक स्वतंत्र तत्व नहीं है, बल्कि शरीर से इसका आपसी संबंध है. चेतना की क्रियाएं शरीर को प्रभावित करती हैं, और कभी-कभी शरीर की क्रियाएं भी चेतना को प्रभावित करती हैं।

कुछ लोगों का मानना है कि शरीर चेतना का काम करने का यंत्र है, जिसे चेतना कभी-कभी इस्तेमाल करती है और कभी नहीं. अगर यंत्र बिगड़ जाए, तो चेतना काम नहीं कर पाती. कुछ लोगों का मानना है कि शारीरिक प्रक्रियाएं कैसे ‘आप’ होने की भावना में बदलती हैं, यह अभी भी स्पष्ट नहीं है. साथ ही, यह भी स्पष्ट नहीं है कि चेतना कैसे हमें मानसिक रूप से समय में आगे-पीछे ले जाती है। विज्ञान के अनुसार चेतना वह अनुभूति है जो मस्तिष्क में पहुँचनेवाले अभिगामी आवेगों से उत्पन्न होती है। इन आवेगों का अर्थ तुरंत अथवा बाद में लगाया जाता है। बहुत पुराने काल से प्रमस्तिष्क प्रांतस्था चेतना की मुख्य इंद्रिय, अथवा प्रमुख स्थान, माना गया है। सुखानुभव, सुख-वेदन आदि’ मानव को सुख – दुःखादि की अनुभूति चेतना के ही कारण होती है। वस्तुतः चेतना; मानव-मस्तिष्क में प्रवहमान वह शक्ति हैं जो मनुष्य को निरन्तर चैतन्य प्रदान करती है। चेतना ज्ञानात्मक, भावात्मक एवं क्रियात्मक त्रिविध स्वरूपा है | चेतना का गति नामक गुण ही उसमें परिवर्तन का कारण होता है। दिव्य चेतना को वैज्ञानिक शब्द के बजाय आध्यात्मिक शब्द के रूप में अधिक माना जा सकता है। इसका उपयोग आमतौर पर वैज्ञानिकों, विशेष रूप से अनुभवजन्य वैज्ञानिकों द्वारा नहीं किया जाता है। यह विशेष शब्द चेतना की एक ऐसी अवस्था को संदर्भित करता है जो सामान्य मानवीय चेतना से परे होती है। मनुष्यों में, सेरेब्रल कॉर्टेक्स का 90% हिस्सा नियोकॉर्टेक्स होता है। शोधकर्ताओं ने तर्क दिया है कि स्तनधारियों में चेतना नियोकॉर्टेक्स में उत्पन्न होती है, और इसलिए विस्तार से यह तर्क दिया जाता है कि चेतना उन जानवरों में उत्पन्न नहीं हो सकती जिनमें नियोकॉर्टेक्स नहीं होता है।