भाजपा का मेहनती कार्यकर्ता संगठन चुनाव को लेकर हताश

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सत्ता की बर्फ में पिघल रही असली मेहनत

कांग्रेस की राह पर ही चली भाजपा, चुनाव प्रकिया बनी मजाक

 

इंदौर। भाजपा में संगठन चुनाव के नाम पर जो कुछ किया गया उससे आम भाजपा का कार्यकर्ता नाराज है। उनका कहना है कि जब विधायकों से पूछकर ही मंडल अध्यक्षता करना थे तो चुनाव प्रक्रिया का लंबा चौड़ा नाटक क्यों किया गया।
क्षेत्रीय संगठन महामंत्री अजय जमवाल, राष्ट्रीय संगठन मंत्री शिव प्रकाश ने बड़े-बड़े दावे क्यों किए। रायशुमारी का नाटक और कार्यकर्ताओं का समय क्यों बर्बाद किया गया ? अगली बार भाजपा को सीधे विधायकों और विधानसभा चुनाव लड़े लोगों से नाम दिल्ली नहीं चाहिए और प्रदेश से उसे घोषित करवा देना चाहिए ? कमोबेश इसी तरह की प्रतिक्रिया आम भाजपा कार्यकर्ता की है। दरअसल, भाजपा नेताओं को अब संगठन नही, सत्ता से जुड़ना पसंद है।
भाजपा ने उम्र, अपराधिक मामले व पार्टी के प्रति निष्ठा का पैमाना जरूर बनाया लेकिन बड़ी-बड़ी बातें करने वाले उसके संगठन पुरुष कथित संगठन चुनाव को विधायकों की पकड़ से भंडारी, कुशा भाऊ ठाकरे, प्यारेलाल खंडेलवाल ऐसे संगठन पुरुष थे जिन्होंने कभी भी संगठन कार्य की कीमत पर सत्ता प्राप्ति के लिए प्रयत्न नहीं किया।

ये लोग तो चुनाव लड़ने से भी इनकार करते थे। 1978 में बहुत मनाने के बाद कुशा भाऊ ठाकरे खंडवा से लोकसभा चुनाव लड़ने के लिए माने थे। यही स्थिति सुंदर सिंह भंडारी और प्यारेलाल खंडेलवाल की थी, लेकिन अब भाजपा में हर कोई सांसद, विधायक, मंत्री, निगम मंडल अध्यक्ष बनना चाहता है। कभी भाजपा की मंडल ईकाईयां शुध्द संगठन की रहती थी।
इन्ही इकाइयों के ज़रिए भाजपा का संगठन सत्ता पर पकड़ बनाये रखता था। इसके कारण क़भी भी सत्ता बेलगाम नही हुई। संगठन की अहमियत सदा सत्ता से ज्यादा रही। जो नेता सत्ता का हिस्सा नही बन पाते थे, वेबड़े गर्व के साथ संगठन का दायित्व ले लेते थे। उन्हें ये अहसास रहता था कि भले ही पार्षद, विधायक, सांसद का टिकट नही मिला लेकिन संगठन का पद भी इन सबसे कम नही हैं।
अब तो सबको सत्ता का टिकट चाहिए और अगर नही मिल पाया तो सत्तारूढ़ नेता के जरिए संगठन में आकर सत्ता पा ली जाए। ये ही परिपाटी अब सत्ता वाली भाजपा में चलन में आ गई हैं।

अन्यथा पहले कहा मंडल इकाई के नेताओ को पार्षद का टिकट मिलता था। अब बीते 3 नगर निकाय चुनाव पर नजर डालें तो मंडल अध्यक्ष भी अब पार्षद का टिकट पाते हैं, क्योंकि उनका चयन ही विधायक करते है और विधायक ही तय करते है अपने क्षेत्र के पार्षद के टिकट।
लिहाजा नेता भक्ति की कांग्रसी बुराई या बीमारी अब भाजपा में गहरे तक प्रवेश करती जा रही हैं। लिहाजा मंडल इकाई में काम करने वाला अच्छा कार्यकर्ता व नेता भी, नेता से जुड़ना पसंद करता है-संगठन से नही। क्योंकि संगठन के जरिए वह पद ले भी आया तो उसे टिकट तो विधायक से ही मांगना पड़ेगा। लिहाजा वह अपने इलाके के विधायक, सांसद या बड़े नेता से जुड़ने को ही अहमियत देता हैं।
अब कहां से आएगा पार्टी संगठन में ठाकरे युग और कैसे क़ायम होगा प्रदेश अध्यक्ष व महामंत्री का रुतबा ? अजय जामवाल कितना जोर लगाएंगे और शिवप्रकाश कहां तक नजर दौड़ाएंगे? कुल मिलाकर संगठन चुनाव की पूरी प्रक्रिया मजाक बनकर रह गई। आखिरकार वही हुआ जो विधायक चाहते थे।
इसी तरह जिला अध्यक्ष के चुनाव के लिए भी रायशुमारी का ढोंग किया जाएगा और होगा वही जो ऊपर के नेता चाहेंगे।

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