खुसूर-फुसूर
काश वर्दी होती,पावर होता तो सहजता से दर्शन होते
मंदिर में दर्शन की लंबी लाईन हो और आप घंटों से लाईन में लगे हों। इस दौरान आप देखें की चंद लोग वर्दी में और अन्य तरीके से आते हैं और सीधे धडल्ले से नीचे तक नंदी गृह तक जाते हैं और प्रेम से दर्शन करते हैं उन्हे पंडित जी भी बडे आदर से प्रसाद देते हैं और आप बेरिकेडस में धक्के खाते हैं भगवान के सामने जाते ही एक आवाज आती है आगे बढो भाई तो कैसा एहसास होगा। यही सब देखने पर आपको जब बूरा लग सकता है तो बाहर से और शहर के श्रद्धालुओं को कैसा लगता होगा। ऐसा भी नहीं है कि इनमें से सभी वर्दी धारी और बगैर वर्दी वाले रौबदार मंदिर की व्यवस्था के तहत संलग्न होने से बाबा के दर्शन के साथ अपने काम की शुरूआत कर रहे हों। अधिकांश की स्थिति यह है कि वे शहर जिले और कुछ तो जिले के बाहर तक के ऐसे लोग आते हैं और रूआब के तहत ऐसा कर चले जाते हैं। आम शहरी के लिए आधार कार्ड की व्यवस्था भी कभी चालू रहती है तो कभी बंद कर दी जाती है। मनमर्जी के आलम के तहत व्यवस्था का उपयोग किया जा रहा है। वर्दी और बगैर वर्दी वाले रूआबदारों का अतिथि आए तो सीधे अंदर तक ले जाया जाता है। न तो प्रोटोकाल का पाइंट की जरूरत है और न ही किसी की रोकने,पूछने की हिम्मत। सब कुछ जायज,संख्या भी कितनी ये भी जानने वाला कोई नहीं,क्या लेकर जा रहे हैं पूछने वाला कोई नहीं। इसकी अपेक्षा चौथा स्तंभ से संबंधितों के चौथा स्तंभ के लिए अन्य शहरों से आए कलमकारों को सामान्य दर्शन के लिए भी प्रोटोकाल का पाइंट और उस पर भी 250 का शुल्क आवश्यक है। खुसूर-फुसूर है कि मंदिर में सब के लिए समान व्यवस्था नहीं है। दोहरी व्यवस्था को अंजाम दिया जा रहा है। वर्दी के साथ डर की हमदर्दी भी है तो बगैर वर्दी वाले रूआबदारों का अपना जलवा है। बाकी सबका तो बाबा ही मालिक है। इस पर भी चौथा स्तंभ के कलमकार व्यवस्थापकों के साथ ही यहां के कर्णधारों के लिए अपनी स्याही फ्री में उपयोग कर रहे हैं।